बैंक क्या है ?|वाणिज्यिक बैंकों द्वारा मुद्रा सृजन की प्रक्रिया|केंद्रीय बैंक के कार्य|केंद्रीय बैंक द्वारा मुद्रा पूर्ति का नियंत्रण|Banking
बैकिंग|वाणिज्यिक बैंकों द्वारा मुद्रा सृजन की प्रक्रिया|केंद्रीय बैंक के कार्य|Banking
बैंक क्या है ?
बैंक एक ऐसी संस्था है जो लाभ अर्जित करने के उददेश्य से जमा स्वीकार करना और ऋण देने का कार्य करता है।
बैंक कितने प्रकार के है ?
बैंक दो प्रकार की होती है:
i) केंद्रीय बैंक
ii) वाणिज्यिक बैंक
केंद्रीय बैंक
केंद्रीय बैंक एक सर्वोच्च बैंक हैं देश में सभी बैंकों का बैंक है। सभी हैज वाणिज्यिक बैंक केंद्रीय बैंक के स्वीक नियंत्रण के अंतर्गत कार्य करते हैं ।
वाणिज्यिक बैंक
वाणिज्यिक बैंक वह वित्तीय संस्था हैं जो सामान्य जनता से जमाएँ स्वीकार करता है तथा लोगों को उपभोग एवं निवेश उद्देश्य के लिए ऋण प्रदान करता है ।
i) बैंक लोगो से नकद जमाएँ प्राप्त करते हैं। जो इन्हें प्रथामिक जमाएँ कहा जाता है।
ii) बैंक अपनी नकद जमाओं से कई गुना अधिक उधार देती है।
iii) वाणिज्यिक बैंकों द्वारा उधार दी गई मुद्रा नकदी के रूप में नहीं होती है। बल्कि यह ॠणियों के खातों में जमा प्रविष्ट के रूप में होती है। यह गौण जमाएँ कहलाती है।
iv) ॠणी अपने खातों में ऋण के लिए चेक जारी कर सकता है। यह चेक अर्थव्यवस्था में मुद्रा के रूप में संचालित होते हैं।
v) प्राथमिक जमाएँ +गौण जमाएँ= माँग जमाएँ
vi) बैंकों के पास रखी कुल माँग जमाएँ वाणिज्यिक बैंकों के नकद कोषों की तुलना में कई गुना अधिक होती है। इसका कारण यह है कि वाणिज्यिक बैंको को यह जानकारी होती है कि सभी जमाकर्ता अपने नकद जमाओं को भी एक समय पर निकलवाने के लिए नहीं आएँगे।
vii) यदि अनुभव दर्शाता है कि निकाली गई राशि माँग जमाओ का लगभग 10 प्रतिशत है तो बैंकों को जमाओं का केवल 10 प्रतिशत ही नकद कोषों के रूप में रखने की आवश्यकता होती है।
viii) सभी माँग जमाएँ अर्थव्यवस्था में मुद्रा पुर्ती का कार्य करती है जैसा कि लोगों द्वारा रखी गई नकदी करती है।
ix) मुद्रा पूर्ति के रूप में कार्य करने वाली माँग जमाएँ बैंक मुद्रा कहलाती है। यह बैंकों द्वारा सृजित मुद्रा है। क्योंकि यह अर्थव्यवस्था में नकदी के रूप में संचालित नहीं होती है बल्कि बैंक द्वारा माँग जमाओं के धारकों को जारी किए गय चेकों के रूप में संचालित होते हैं।
उदाहरण
i) अर्थव्यवस्था में एकल बैंकिंग प्रणाली है और प्रारंभ में बैंक ₹ 1000 की जमाएँ स्वीकार करते हैं।
ii) CRR=10% और यह परिवर्तन नहीं होता है। यह परिवर्तन नहीं होता है। यह वाणिज्यिक बैंकों की माँग जमाओं के प्रतिशत के रूप में उनके नकद कोषों को दर्शाता है।
तालिका 1 दर्शाती है कि मुद्रा के सृजन के लिए एक अर्थव्यवस्था कैसे कार्य करती है।
• पहले चक्र में बैंक ₹ 1000 की जमाएँ स्वीकार करते हैं।
• ₹ 1000 की देयता को पूरा करने के लिए नकद कोष ₹ 100 के बराबर है ( क्योंकि नकद कोष अनुपात= कूल जमाओं का 10% है) । इसका अर्थ है कि बैंकों के पास ₹ 1000-₹100=₹ 900 के अतिरिक्त कोष है जिनका प्रयोग वे ऋण देने में कर सकते हैं।
• जब इन अतिरिक्त कोषों को ऋणों के रूप में दे दिया जाता है तो बैंकों की जमाएँ ₹ 900 से बढ़ जाता है। बैंकों को ₹ 900 का 10% या ₹ 90 के नकद कोषों को रखने की आवश्यकता होती है। अब बैंकों के पास ₹ 900 -₹ 90 =₹ 810 के अतिरिक्त कोषों हैं जिनको ऋणों के रूप में दिया जा सकता है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहेगी जब तक की कूल माँग जमाएँ ₹ 10000 और नकद कोष ₹ 1000 नहीं हो जाते हैं।
हम कह सकते हैं कि वाणिज्यिक बैंकों द्वारा मुद्रा सृजन दो प्रमुख तत्वों पर निर्भर करता है जो इस प्रकार हैं
i) वाणिज्यिक बैंकों के नकद शेष जिनका प्रयोग वे साख सृजन के लिए कुशन मुद्रा के रूप में कर सकता हैं।
• नकद शेष जितने अधिक होंगे वाणिज्यिक बैंकों की मुद्रा सृजन की क्षमता उतनी ही अधिक होगी।
ii) CRR:CRR जितना अधिक होगा मुद्रा को सृजन करने की क्षमता उतनी ही कम होगी।CRR के अतिरिक्त बैंक तिजोरी नकद के रूप में अतिरिक्त कोष अपने पास रख सकते हैं। तिजोरी नकदी जितनी अधिक होगी मुद्रा सृजन की क्षमता उतनी ही कम होगी।
CRR( नकद आरक्षित अनुपात) तथा साख गुणक
CRR( नकद आरक्षित अनुपात)
वह नकदी जिसे वाणिज्यिक बैंकों को अपने पास रखना होता है।
• भारत में CRR को वाणिज्यिक बैंकों द्वारा निर्धारित नहीं किया जाता है बल्कि इसे RBI द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसलिए इससे विधिक आरक्षित अनुपात (LRR) भी कहते हैं।
एक बार CRR के ज्ञात होने पर हम साख गुणक को ज्ञात कर सकते हैं।
साख गुणक को निम्नलिखित समीकरण द्वारा ज्ञात किया जा सकता है:
केंद्रीय बैंक
केंद्रीय बैंक एक सर्वोच्च बैंक है जो देश की संपूर्ण बैंकिंग प्रणाली को नियंत्रित करता है। यह नोट जारी करने की एकमात्र एजेंसी है तथा अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति को नियंत्रित करता है। यह सरकार के बैंक का कार्य करता है तथा देश में विदेशी मुद्रा के कोषों को व्यवस्थित करता है। भारतीय रिजर्व बैंक भारत का केंद्रीय बैंक है।
केंद्रीय बैंक के कार्य
i) नोट जारी करने का बैंक: एक देश के केंद्रीय बैंक को नोट जारी करने का एकमात्र अधिकार प्राप्त होता है। यह केंद्रीय बैंक का करेंसी प्राधिकारी कार्य के कहलता है।
ii) सरकारी बैंकर: सरकारी बैंकर के रूप में केंद्रीय बैंक सरकार के विभिन्न विभागों तथा संस्थाओं की आय जमा करता है और उसमें से सरकारी खर्च को चुकया जाता है। सरकार को संकट काल में ऋण भी प्रदान करता है।
iii) विदेशी विनिमय का संरक्षक: विदेशी विनिमय दर को स्थिर रखने के उद्देश्य से भारतीय रिजर्व बैंक विदेशी मुद्राओं को खरीदता और बेचता है और देश के विदेशी मुद्रा भंडार को भी सुरक्षित रखता है।
iv) अंतिम ऋणदाता: इसका अर्थ यह है कि जब किसी वाणिज्यिक बैंकों को कहीं से भी ऋण प्राप्त नहीं होता है तब वे केंद्रीय बैंक से अंतिम ऋणदाता के रूप में ऋण की माँग करता है।
ताकि:
i) देश की बैंकिंग व्यवस्था को कोई धक्का ना पहुँच
ii) मुद्रा बाजार स्थिर रहे।
V) समाशोधन गृह का कार्य: केंद्रीय बैंक समाशोधन गृह का कार्य भी करता है। इसका अर्थ है कि केंद्रीय बैंक देश के सभी बैंकों का हिसाब- किताब ही रखता है। हर बैंक का केंद्रीय बैंक में खाता होता है।
केंद्रीय बैंक द्वारा मुद्रा पूर्ति का नियंत्रण
केंद्रीय बैंक अवस्था मुद्रा की पूर्ति को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न माप अपनाते हैं। अधिकतर, ये माप वाणिज्यिक बैंकों द्वारा साख पुर्ती संबंधित है।
जो निम्नलिखित उपकरण दिए हुए हैं;
i) मात्रात्मक उपकरण
ii) गुणात्मक उपकरण
साख नियंत्रण के मात्रात्मक उपकरण
i) बैंक दर : बैंक दर से अभिप्राय उस दर से है जिस पर भारतीय रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों को मुद्रा उधार देता है। इसका संबंध वाणिज्यिक बैंकों की तुरंत रिन आवश्यकता से है।
बैंक दर में वृद्धि → ब्याज की बाजार दर में वृद्धि→ पूँजी की लागत में वृद्धि→ साख की माँग में कमी- मुद्रा की पूर्ति में कमी→ मुद्रा- स्फीति का नियंत्रित होना।
बैंक दर में कमी → ब्याज की बाजार दर में कमी→ पूँजी की लागत में कमी→ साख की माँग में वृद्धि → अवस्फीति का नियंत्रण होना।
ii) खुले बाजार की क्रियाएँ: खुले बाजार की क्रियाओं से अभिप्राय RBI द्वारा सरकार की ओर प्रतिभूतियों का खुले बाजार में बेचना तथा खरीदना है।
RBI द्वारा प्रतिभूतियों को बेचना → तरलता को सोखना तथा जिसके कारण वाणिज्यिक बैंकों के नकद कोषों में कमी होना → वाणिज्यिक बैंकों की साख सृजित करने की क्षमता में कमी होना → मुद्रा पूर्ति में कमी होना→ मुद्रा- स्फीति का नियंत्रित होना।
RBI द्वारा प्रतिभूतियों को खरीदना → तरलता को छोड़ना तथा जिसके कारण वाणिज्यिक बैंकों के नकद कोषों में वृद्धि होना → वाणिज्यिक बैंकों की साख सृजित करने की क्षमता में वृद्धि होना → मुद्रा पूर्ति में वृद्धि होना→ अवस्फीति का नियंत्रण होना।
iii) रेपो दर :वह दर जिस पर भारतीय रिजर्व बैंक खुले बाजार में सरकारी प्रतिभूतियों को खरीद कर वाणिज्यिक बैंकों को अल्पकालीन ऋण प्रदान करता है रेपो दर कहते हैं।
रेपो दर में वृद्धि→ पूँजी की लागत में वृद्धि-साख की माँग में कमी→ वाणिज्यिक बैंकों द्वारा मुद्रा की पूर्ति में कमी→ मुद्रा- स्फीति का नियंत्रित होना।
रेपो दर में कमी→ पूँजी की लागत में कमी-साख की माँग में वृद्धि→ वाणिज्यिक बैंकों द्वारा मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि→ मुद्रा- अवस्फीति का नियंत्रण होना।
iv) विपरीत रेपो दर: वह दर जिस पर भारतीय रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों से जमाएँ स्वीकार करता है विपरीत रेपो दर कहलाती है।
विपरीत रेपो दर में कमी→ ब्याज आए सृजित करने के लिए वाणिज्यिक बैंकों द्वारा RBI के पास कम कोष रखना→ साख सृजन के लिए RBI के पास अधिक कोषों को CRR कोषों के रूप में प्रयोग करना → मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होना→ अवस्फीति का नियंत्रण होना।
विपरीत रेपो दर में वृद्धि→ ब्याज आए सृजित करने के लिए वाणिज्यिक बैंकों द्वारा RBI के पास कम कोष रखना→ साख सृजन के लिए RBI के पास अधिक कोषों को CRR कोषों के रूप में प्रयोग करना → मुद्रा की पूर्ति में कमी होना-कमी→ मुद्रा- स्फीति का नियंत्रित होना।
v) नकद आरक्षित अनुपात: इससे अभिप्राय एक बैंक की कुल जमाओं के उस न्यूनतम अनुपात से है जो उसे RBI के पास जमा रखना पड़ता है।
CRR में वृद्धि→ माँग जमाओं की एक ही हुई मात्रा के लिए नकद कोषों में वृद्धि→ वाणिज्यिक बैंकों की मुद्रा पूर्ति में कमी→ मुद्रा- स्फीति का नियंत्रित होना।
CRR में कमी→ माँग जमाओं की एक ही हुई मात्रा के लिए नकद कोषों में कमी→ वाणिज्यिक बैंकों की मुद्रा पूर्ति में वृद्धि→ अवस्फीति का नियंत्रण होना।
vi) वैधानिक तरलता अनुपात: प्रत्येक बैंक को अपनी परिसंपत्तियों के एक निश्चित प्रतिशत को अपने पास तरल परिसंपत्तियों के रूप में रखना पड़ता है जिसे वैधानिक तरलता अनुपात कहते हैं।
• तरल संपत्तियों में शामिल होते हैं:
i) नकद
ii) स्वर्ण
iii) भारमुक्त अनुमोदित प्रतिभूतियाँ
SLR में वृद्धि → वाणिज्यिक बैंकों द्वारा अपने पास रखे तरल परिसंपत्तियों मैं वृद्धि-RBI के पास CRR जमाओं के लिए कोषों की उपलब्धता में कमी→ वाणिज्यिक बैंकों की मुद्रा पूर्ति में कमी → मुद्रा- स्फीति का नियंत्रित होना।
SLR में कमी → वाणिज्यिक बैंकों द्वारा अपने पास रखे तरल परिसंपत्तियों में कमी→ RBI के पास CRR जमाओं के लिए कोषों की उपलब्धता में वृद्धि→ वाणिज्यिक बैंकों की मुद्रा पूर्ति में वृद्धि → अवस्फीति का नियंत्रण होना।
साख नियंत्रण के गुणात्मक उपकरण
i) सीमांत आवश्यकता: सीमांत आवश्यकता से अभिप्राय बैंक द्वारा दिए गए ऋण तथा ऋणों के लिए प्रदान की गई जमानत वाली वस्तु के वर्तमान मुल्य के अंतर से है।
सीमांत आवश्यकता वृद्धि - साख की माँग में कमी - वाणिज्यिक बैंकों द्वारा साख की पुर्ती में कमी - मुद्रा पूर्ति में कमी -मुद्रा- स्फीति का नियंत्रित होना।
सीमांत आवश्यकता कमी - साख की माँग में वृद्धि - वाणिज्यिक बैंकों द्वारा साख की पुर्ती में वृद्धि - मुद्रा पूर्ति में वृद्धि -अवस्फीति का नियंत्रण होना।
ii) साख की राशनिंग:साख की राशनिंग से अभिप्राय विभिन्न व्यवसायिक क्रियाओं के लिए साख का कोटा निर्धारित करना है।
साख की राशनिंग का प्रवेश: वाणिज्यिक बैंकों द्वारा साख की पुर्ती में कमी→ मुद्रा की पूर्ति में कमी→ मुद्रा- स्फीति का नियंत्रित होना।
साख की राशनिंग का हटाना: वाणिज्यिक बैंकों द्वारा साख की पुर्ती में वृद्धि→ मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि-मुद्रा→
अवस्फीति का नियंत्रण होना।
iii) नैतिक प्रभाव: यह RBI द्वारा अपने दिशा निर्देशों के अनुसार काम करने के लिए वाणिज्यिक बैंकों को सलाह देने की भाँति है। मुद्रा- स्फीति के दौरान बैंकों को ऋणों को सीमित करने तथा अवस्फीति के दौरान उदारता से ऋण देने का परामर्श दिया जाता है।