नाटक किसे कहते है ?|नाटक के तत्व
नाटक किसे कहते है ?
नाटक के दृश्य विधा है। इसे हम अन्य गद्य विधाओं से इसलिए अलग नहीं मानते हैं क्योंकि नाटक भी कहानी, उपन्यास, कविता, आदि की तरह साहित्य के अंतर्गत ही आता है। पर यह अन्य विधाओं से इसलिए अलग हैं, क्योंकि वह अपने लिखित रूप से दृश्यता की ओर बढ़ता है।
नाटक के तत्व
1) समय का बंधन
• नाटक की रचना पर समय का यह बंधन अपना पूरा प्रभाव डालता है इसलिए एक नाटक को शुरू से लेकर आखिरी तक एक निश्चित समय सीमा के अंदर ही पूरा करना होता है।
• एक नाटककार द्वारा अपनी रचना को भूतकाल से अथवा किसी और लेखक की रचना का भविष्यकाल से उठाया जाता है तो इन दोनों ही स्थितियों में उस नाटक को वर्तमान काल में ही संयोजित करना होता है। चाहे काल कोई भी हो उसे एक निश्चित समय में, एक निश्चित स्थान पर, वर्तमान काल में ही घटित होना होता है।
• एक नाटककार को यह भी सोचना हो सकता है कि दशक कितने समय अर्थात समय के कितने अंतराल तक किसी कहानी को अपने सामने घटित होते देख सकता है।
2) शब्द
•नाटक की दुनिया में सब अपने एक नई, निजी तथा पृथक आस्तिकत ग्रहण करता है। हमारे नाट्यशास्त्र मे भी वाचिक अर्थात बोले जाने वाले शब्द को नाटक का शरीर कहा गया है।
• कहानी तथा उपन्यास में शब्दों के माध्यम से किसी स्थिति वातावरण या कथानक का वर्णन किया जाता हैं। या ज्यादा से ज्यादा उसका चित्रण कर पाते हैं।
• एक अच्छा नाटक उसे ही माना जाता है जो लिखे अथवा बोले गए शब्दों से भी अधिक वह ध्वनित करें जो लिखा या बोला नहीं जा रहा।
3) कथ्य
कथ्य पूरे नाटक का समग्र रूप होता है। इसके अंतर्गत नाटककार को विशेष रूप से सतर्क रहने की आवश्यकता है। क्योंकि नाटक का विषय चयन करते समय उसको उसकी भाषा शैली, परिवेश, वस्त्र- परिधान आदि समस्त रूपों को नाटक में समाहित करना चाहिए नाटककार को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसको कथ्य दुखांतक ना हो।
4) संवाद
• अन्य किसी विधा के लिए यह कतई आवश्यक नहीं है कि संवादों की मदद ले, परंतु नाटक का तो उसके बिना काम ही नहीं चल सकता है।
• नाटक के लिए तनाव, उत्सुकता रहस्य,रोमांच और अंत में उपहास जैसे तत्व अनिवार्य हैं। इसके लिए आपस में विरोधी विचारधाराओं का संवाद आवश्यक होता है।
5) प्रतिरोध
नाटक में प्रतिरोध की स्थिति मध्य में आती है, जब नायक विपरीत परिस्थितियों में आ जाता है । पता लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करता है। यह स्थिति देश को तक पहुंचाने की आदर्श स्थिति होती है। इस समय दर्शक उस पात्र तथा नाटक से सीधा जुड़ जाता है। उस नायक में स्वयं के प्रतिरूप को देखने लगता है।
6) चित्र योजना
कथन किसी ग्रामीण परिवेश का है तो उसके पात्रों का चरित्र चित्रण भी ग्रामीण परिवेश के अनुसार ही होना चाहिए। कथानक से अलग हटकर पात्रों का चरित्र चित्रण किया गया तो वह बेमेल होगा। यहां नाटक के असफल होने की पूरी संभावना रहेगी।
7) भाषा शिल्प
नाटककार को चाहिए की भाषा शिल्प कथानक के अनुरूप तथा पात्रों के अनुरूप रखें। कोई पढ़ा-लिखा शहरी व्यक्ति है जो उसकी भाषा शैली में पढ़ी-लिखे शिक्षित व्यक्ति अभी से मिलना चाहिए। अगर कोई अनपढ़ गवार रहती है तो उसकी शब्दावली वैसे ही होनी चाहिए।
8) प्रकाश योजना
रंगमंच पर से खेलने समय प्रकाश की व्यवस्था का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। प्रकाश अवस्था के कारण समय, परिस्थिति, देशकाल को व्यवस्थित रूप से उजागर किया जा सकता है कहीं दुख का क्षण है तो वहां पर अंधेर की अवस्था की जाती है, वही उत्साह आदि का दृश्य रंगमंच पर दिखाया जा रहा है, तो प्रकाश की व्यवस्था उजाले के रूप में होती है।
9) वेशभूषा
वेशभूषा कर्नाटक के क्षेत्र में विशेष महत्व होता है । क्योंकि नाटक को दृश्य काव्य भी कहा गया है। इसे रंगमंच पर खेला जाता है। इसके पात्रों को उनके अनुरूप ही वेशभूषा धारण करना चाहिए।
10) ध्वनि योजना
तारों को के अनुसार अपनी योजना का प्रबंध नाटक सफलता तय करता है। ध्वनि उस व्यक्ति तक पहुंचाना चाहिए जो सबसे पीछे बैठा है। अगर ध्वनि पीछे बैठे हुए व्यक्ति तक स्पष्ट रूप से रंगमंच पर खेले जाने वाले नाटक को देखने तथा सुनने की व्यवस्था की जाती है। जिसका असर रंगमंच देखने वालों को पर पड़ता है। वह अधिक देर तक