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प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण की समस्या|पर्यावरण को कैसे बचाया जाए?

             पर्यावरण एवं सतत विकास







               पर्यावरण किसे कहते हैं?

पर्यावरण उन सभी परिस्थितियों और उनके प्रभावों को कहा जाता है जो मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। यह सभी संसाधनों और उसके आस- पड़ोस के वातावरण का कुल जोड़ है। इसमें जैविक तत्व जैसे- पौधे एवं जीव-जंतु तथा अजैविक तत्व जैसे- जल, वायु आदि को सम्मिलित किया जाता है।



       
               पर्यावरण के महत्व क्या है?

1) पर्यावरण उत्पादन के लिए संसाधन प्रदान करता है: पर्यावरण के अंतर्गत भौतिक संसाधनों ( खनिज, लकड़ी, पानी, मिट्टी आदि) को शामिल किया जाता है, जो हमें प्रकृति से नि:शुल्क प्रकार के रूप में उपलब्ध है। यह सारे संसाधन उत्पादन में आगत के रूप में प्रयोग होता है।

2) पर्यावरण जीवन धारणा में सहायक है: पर्यावरण के अंतर्गत सूर्य, मिट्टी, जल एवं वायु आदि को शामिल किया जाता है जो मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण उपादान हैं। पर्यावरण के इन तत्वों की अनुपस्थिति का अर्थ है जीवन की अनुपस्थिति। 

3) पर्यावरण जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाता है: वातावरण के अंतर्गत नदियाँ, समुद्र, पर्वत, मरुस्थल आदि को सम्मिलित किया जाता है। मनुष्य इस वातावरण का आनंद उठाता है जो उसके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाता है।



                पर्यावरण संबंधित समस्याएँ


पर्यावरण संबंधित दो समस्याएँ है:
1) प्रदूषण की समस्या
2) प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण की समस्या

                      1) प्रदूषण
प्रदूषण से अभिप्राय उत्पादन तथा उपभोग की उन क्रियाओं से होता है जो वायु, जल और वातावरण को प्रदूषित करती हैं।


 
         प्रदूषण के कितने प्रकार होते हैं?

             प्रदूषण के तीन प्रकार है:

i) वायु प्रदूषण

ii) जल प्रदूषण

iii) ध्वनि प्रदूषण


                         i) वायु प्रदूषण

वायु अपने साथ ऑक्सीजन ले जाती है जो जीवन का एक अनिवार्य तत्व है। वायु के प्रदूषण का अर्थ जीवन की आवश्यकता तत्व में प्रदूषण।



               वायु प्रदूषण के कारण

i) उन उद्योगों द्वारा छोड़ा गया धुआँ, जो विशेष रूप से कोयले का ऊर्जा के रूप में प्रयोग करते हैं।

ii) रसायनों के प्रतिपादन की प्रक्रिया में उद्योगों द्वारा विषैली गैसों का विसर्जन।

iii) मोटरवाहनों द्वारा गैस बाहर फैलना , जो वाहनों की संख्या में निरंतर वृद्धि के साथ-साथ क्रूर अनुपात धारण करता जा रहा है।

iv) वायु में दूषित पदार्थों की उपस्थिति के कारण वायु प्रदूषित होती है। यह दूषित तत्व कुछ जहरीली गैसों जैसे 'ओजोन' के कारण हो सकते हैं।


                   ii) जल प्रदूषण

वायु की भांति जल ही जीवन एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसका प्रदूषण भी समान रूप से घातक है। भारत में कहीं राज्य जल अकाल के कगार पर खड़े हैं। दस्त एवं हेपेटाइटिस जैसी बीमारियों का मुख्य कारण जल प्रदूषित होना है।





            जल प्रदूषण के कारण

i) घरेलू सीवरेज जो नदियों तथा नालों में मिल जाता है।

ii) उद्योगों के खतरनाक रसायन जो नदियों में जाकर गिरते हैं।

iii) कृषि में छिड़के कीटनाशक पदार्थ व दवाइयाँ जो मिट्टी के साथ बहकर नदीयों में मिल जाते हैं।

iv) थर्मल पावर हाउस द्वारा छोड़ी राख जो पानी में मिल जाता है।

     
                        iii) ध्वनि प्रदूषण
यंत्रीकरण ने कार्यक्षमता स्तरों में वृद्धि की है, परंतु साथ ही साथ इसमें ध्वनि प्रदूषण के स्तर को भी समान रूप से बढ़ा दिया है। अत्यधिक ध्वनि या शोर से चिढ़ या क्षोभ होता है और अनावश्यक रूप में शरीर एवं मस्तिष्क में थकावट पैदा हो जाती है।

              ध्वनि प्रदूषण के कारण
i) यातायात के विभिन्न साधनों के इंजनों द्वारा निकाली गई ध्वनियाँ।

ii) औधोगिक मशीनों द्वारा पैदा की गई ध्वनियाँ।

iii) मिक्सर- ग्राइंडर, पानी बूस्ट करने वाली मशीनों तथा वाशिंग मशीनों जैसे कई उपकरणों द्वारा उत्पादित ध्वनियाँ।



2) प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण की समस्या

पर्यावरण की दूसरी समस्या प्रकृति संसाधनों के अत्यधिक शोषण से संबंधित है। प्राकृतिक संसाधनों से अभिप्राय वन, खनिज, भूमि आदि से है। प्रकृतिक संसाधनों को प्राकृतिक पूँजी भी कहा जाता है। 

         निम्नलिखित अवलोकन पर ध्यान दें
i) मनुष्य को आर्थिक विकास के लिए भौतिक पूँजी के साथ-साथ प्रकृति पूँजी की भी आवश्यकता होती है।

ii) उत्पादन में वृद्धि करने के फलस्वरूप भौतिक पूंजी तथा प्रकृतिक पूंजी दोनों में घिसावट होती है।

 वन विनाश और भूमि की अवनति की समस्या

           
                      वन विनाश

औधोगिकीकरण उस समय एक वरदान है जब इससे उपभोग के लिए अनेक प्रकार की वस्तुएँ प्राप्त होती है, जिससे हमारे जीवन स्तर में वृद्धि होती है। परंतु उस समय यह है अभिशाप है जब इससे वनों का विनाश होता है । वन विनाश निम्न प्रकार से होता है:

i) लकड़ी की बढ़ती माँग की पूर्ति के लिए वृक्षों को काटा जाता है।

ii) औद्योगिकरण शहरीकरण को बढ़ावा देता है और शहरीकरण वनों के विनाश पर विकसित होता है। जिससे शहर बसाने के लिए वनों को साफ करके भूमि की आपूर्ति की जाती है।

iii) बहुउद्देश्यीय नदी परियोजनाएँ ( जैसे - भाखड़ा बाँध या दामोदर घाटी योजना) वनों के विनाश में योगदान देने वाले अन्य कारक हैं।

           
                  भूमि की अवनति

भूमि की अवनति से अभिप्राय भूमि की उपजाऊपन क्षति से है निम्नलिखित में से किसी तत्व के कारण हो सकती है।

i) मृदा अपरदन तेज हवाओं या बाढ़ों के कारण होता है। जब हम मृदा अपरदन की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय मिट्टी की ऊपरी सतह से है जिसमें पौधे के विकास के लिए मुख्य पोषक तत्व होते हैं । जैसे- नाइट्रोजन फास्फोरस तथा पोटेशियम

ii) मिट्टी में खारापन कथा नमकीनपन पानी के जमाव के कारण होता है।

iii) भूमि की ऊपरी सतह पर पानी का अधिक जमाव मिट्टी के पोषक तत्वों को चूस लेता है और उसके उपजाऊपन को कम कर देता है।

                  
                पर्यावरण अवनति के क्या कारण है?

पर्यावरण अवनति के कारण निम्नलिखित है:

1) जनसंख्या विस्फोट: पर्यावरण अवनति का एक मुख्य कारण भारत में जनसंख्या विस्फोट की प्रवृत्ति है। भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ गया तथा भूमिका अधिक शोषण होने लगा। जनसंख्या विस्फोट के कारण वनों का बहुत अधिक कटाव किया गया, ताकि वन भूमि का प्रयोग उद्योगों अथवा निर्माण क्रियाओं में किया जा सके।

2) व्यापक निर्धनता: भारत में निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों के संख्या काफी अधिक है। ये लोग अपने जीवन निर्वाह के लिए वनों का कटाव करते हैं तथा उनके प्रकार की प्रकृतिक उनकी का शोषण करते हैं।

3) बढ़ता हुआ शहरीकरण: बढ़ते हुए शहरीकरण के कारण मकानों तथा सार्वजनिक सुविधाओं की माँग में काफी वृद्धि हुई है। जिससे कारण भूमि तथा अन्य प्रकृतिक संसाधनो का अत्यधिक शोषण किया जाता है।

4) कीटनाशक तथा रसायनिक उर्वरकों का अधिक प्रयोग:रसायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण भी पर्यावरण प्रदूषण हो रहा है।


        पर्यावरण को कैसे बचाया जाए?

1) जनसंख्या नियंत्रण: पर्यावरण संरक्षण के लिए जनसंख्या को नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यकता है।

2) पर्यावरण संरक्षण कानून का सख्ती से पालन: भारत में संरक्षण कानून 1986 में लागू किया गया था। इस कानून का उद्देश्य पर्यावरण की गुणवत्ता में कमी नहीं होने देना है। इस कानून का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए।

3) वृक्षारोपण अभियान: पर्यावरण संरक्षण के लिए विस्तृत वृक्षारोपण अभियान आरंभ होना चाहिए।

4) जल प्रबंधन: नदियों के जल को निर्मल बनाया जाए तथा गांव में पीने के लिए निर्मल जल की व्यवस्था की जाए।

5) कूड़े- करकट का प्रबंध: ठोस कूड़े- करकट की नियोजित ढंग से व्यवस्था की जाए। उनका रासायनिक उपचार किया जाए। गाँवों में कूड़े को कंपोस्टिंग विधि द्वारा खाद में बदला जाए।

6) आवास अवस्था में सुधार: लोगों के रहने के घरों की अवस्था साफ-सुथरी होनी चाहिए। गंदी बस्तियों के स्थान पर खुली और रोशनीदार साफ बस्तियों का निर्माण किया जाना चाहिए। जिससे हमें दूसरे लोग झुग्गी -झोपड़ी निवासी ना कह सकें।
 
                   सतत विकास 
सतत विकास आर्थिक विकास की वह प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य प्रकृति की निधि तथा पर्यावरण को हानि पहुँचाए बिना वर्तमान तथा भावी दोनों पीढ़ियों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करना है।


          सतत विकास की विशेषताएँ 

1) वास्तविक प्रति व्यक्ति आय तथा आर्थिक कल्याण में दीर्घकालीन विधि: समयानुसार, प्रति व्यक्ति वास्तविक आय और आर्थिक वृद्धि में दीर्घकालीन वृद्धि होनी चाहिए।

2) प्रकृति संसाधनों का विचारपूर्वक प्रयोग: सतत विकास का अर्थ यह नहीं है कि प्रकृतिक संसाधनों का उपयोग ही नहीं किया जाए बल्कि इससे अभिप्राय है कि प्रकृति संसाधनों का इस प्रकार विचार पूर्वक उपयोग किया जाए जिससे कि उनका अत्यधिक शोषण ना हो सके।

3) प्रदूषण पर रोक: सतत विकास उन गतिविधियों को समर्थन नहीं करता जो पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ाती है।


       
           सतत विकास की नीतियाँ

1) आगत- कुशल तकनीक: हमें इस तरह की उत्पादन तकनीको को खोज निकालना है जो आगत-कुशल को अर्थात जिससे अधिक उत्पादन हो यह प्रति इकाई आगत की संसाधन निधि के शोषण को कम करेगा।

2) पर्यावरण- मैत्रिक ऊर्जा स्रोतों का प्रयोग:LPG एवं CNG पर्यावरण-मैत्रिक स्वच्छ इंधन है। 

पेट्रोल एवं डीजल के स्थान पर इन ईंधनों के प्रयोग को निश्चित रूप से  प्रोत्साहित करना चाहिए, क्योंकि पेट्रोल और डीजल अधिक मात्रा में कार्बन- डाइ- ऑक्साइड गैस निर्गमन करके ग्रीन हाउस गैसों को प्रभावित करते हैं।

ग्रामीण क्षेत्र में लोगो को लकड़ीयो का प्रयोग करने से रोकना चाहिए। क्योंकि लकड़ी के प्रयोग से वन- विनाश का कारण है जो अनावश्यक रूप से संसाधनों में कमी लाता है। इसके स्थान पर गोबर गैस का प्रयोग करने का प्रेरित करना चाहिए।

3) सूर्य किरण का सौर ऊर्जा में सौर ऊर्जा का विद्युत शक्ति में रूपांतरण: निम्नलिखित अवलोकन पर ध्यान दीजिए:

i) भारत जैसे देश में सूर्य किरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जो ऊर्जा का एक धनी स्रोत है। 

ii) सूर्य किरण पर्यावरण-मैत्रिक है तथा उर्जा का कभी न समाप्त होने वाला स्रोत है।

iii) सौर ऊर्जा को विद्युत शक्ति में रूपांतरण करना एक दूर स्वप्न नहीं रहा है। लेकिन इसकी तकनीक में व्यापक परिवर्तन होना अभी भी बाकी है।
 
iv) सौर ऊर्जा केवल आर्थिक संवृद्धि की समस्या एक प्रभावी उत्तर नहीं है, बल्कि सतत विकास की समस्या का एक प्रभावी उत्तर है।

4) अपशिष्टों का प्रबंधन:अपशिष्टों को इधर-उधर फेंकने या नदियों में बहाने की बजाए, जो पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ाता है, हमें उसका व्यवस्थित रूप से प्रबंधन करना चाहिए।

5) रासायनिक निस्सरण को निपटाने के लिए कठोर कानून: भारत एक ऐसा देश है जहाँ कानून तो बनता है लेकिन जिसका प्रयोग सख्ती  से नहीं होता है। औद्योगिक इकाइयों का रसायनिक हमारी नदियों, झरनों के पानी को प्रदूषित करता है एवं जल- जीवो का विनाश का कारण बनता है। यदि हमें अपने पर्यावरण को बचाना है तो पर्यावरण कानून सख्त से पालन करना पड़ेगा।





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